सुष्मिता दास, आईएनएन, नईदिल्ली, @sushmi10d;
हरित क्रांति के लगभग 5 दशक बीत जाने के बाद आज फिर कृषि क्षेत्र, कृषक, गांव की स्थिति उसी मुहाने पर आकर खड़ी होती दिखती है, जहां से अकाल व निर्धनता का दुष्चक्र प्रारंभ होता है। यह समस्या केवल भारत की नहीं, बल्कि विश्व के बड़े भूभाग की है। पर समाधान क्या और विशेषकर भारत के संंबंध में इससे निपटने का उपाय क्या हो, यह गंभीर चिंता और चिंतन दोनों का विषय है।
कांफें्रस में खेती विरासत मिशन के कार्यकारी निदेशक उमेंद्र दत्त ने कहा कि वर्तमान स्थिति को देखते हुए हमें हरित क्रांति से एक कदम आगे बढक़र सदाबहार हरित क्रांति पर ध्यान देना होगा। यही वह मूल उपाय है जो पर्यावरण और पोषण दोनों से संबंधित समस्याओं का निदान करेगा।
पर सदाबहार हरित क्रांति का रास्ता क्या है? यह सवाल जटिल है, पर गंभीर भी। इस प्रश्न के उत्तर में दत्त का यह प्रेक्षण महत्व रखता है। दत्त ने कहा कि पहले कृषि भोजन के लिए की जाती थी, पर जब से इसे व्यवसाय के रूप में किया जाने लगा, जमीन की उर्वरता, पैदावार की गुणवत्ता, पोषण और पर्यावरण से खिलवाड़ होने लगा। भूमि की उर्वरा शक्ति कम होने से पैदावार भी कम होने लगी और प्रदूषण भी फैलने लगा। इस मूल कारण का समाधान ढूंढ़ लें तो काफी समस्याएं जड़ से खत्म हो जाएंगी।
खेती का संबंध भोजन से है और भोजन का पैदावार से। आजकल यूरिया व अन्य रासायनिक खादों के प्रयोग से उगाई जाने वाली फसलों में कई प्रकार के पोषक तत्वों की कमी होती है। हरित क्रांति के बाद देश की पैदावार तो बढ़ा ली पर उसमें पोषक तत्वों की कमी होने लगी है। दत्त ने कहा कि जनसंख्या के अनुसार पैदावार बढ़ाने के लिए हमने युद्ध स्तर पर प्रयोग से पैदावार बढ़ी लेकिन इस पद्धति ने हमें परंपरागत खेती के तरीकों से दूर कर दिया। कई फसलों का उत्पादन काफी घट गया। जैसे अब केवल दलहन, चावल और गेहु की खेती को प्रमुखता दी जाती है, जबकि बाजरा, कंगरा आदि जैसे फसलों का उत्पादन न के बराबर हो रहा है।
यह न तो जमीन की उर्वरता के लिए सही है न ही मानव स्वास्थ्य के लिए। दत्त की यह बात चिंतन करने योज्य तो है। आधुनिक रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग ने समाज की कई तरह के रोग भी दिए हैं। हमारे शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी घटती जा रही है। इनके दुष्प्रभाव से मनुष्यों में कैंसर व अन्य गंभीर रोग एवं प्रजनन संबंधी विकार आदि बढ़ रहे हैं। पहले जहां बच्चे नौ महीने की अवधि पूरा करने के बाद मां के गर्भ से बाहर आते थे। अब छह सात माह में ही प्रसव होने लगे हैं। हाल ही हुए एक शोध के मुताबिक विवाह के बाद पश्चात 90 प्रतिशत मामलों में पहला गर्भ ठहरने में समस्याएं आ रही हैं।
डाउन टु अर्थ के प्रबंध सम्पादक रिचर्ड महापात्र ने कहा कि इन समस्याओं की जड़ में रासायनिक खादों का अंधाधुध प्रयोग भी है। रासायनिक खादों के प्रयोग के बजाय देश के किसानों को जैविक खेती की ओर बढऩा चाहिए। इससे न केवल हम जमीन की घटती उपजाऊ क्षमता को बढ़ा सकेंगे, बल्कि पर्यावरण में बढ़ते प्रदूषण को भी रोक सकेंगे।
महापात्र ने कहा कि 60 दशक में देश में आई हरित क्रांति का श्रेय यूरिया व रासायनिक खाद को जाता है। पर हमने उस वक्त इससे होने वाले गंभीर परिणामों के बारे में नहीं सोचा। मैगजीन में छपे लेख पर चर्चा करते हुए रिचर्ड ने कहा कि यूरिया में प्रयोग किए जाने वाले नाइट्रोजन की वजह से प्रर्यावरण को अधिक हानि पहुंच रही है। यदि यूरिया का प्रयोग बंद नहीं कर सकते तो कम तो कर ही देना चाहिए।
वर्तमान की यूरिया खपत का चौथाई भाग ही प्रयोग करना चाहिए। भूमि की उर्वर क्षमता बढ़ाने के लिए बदल-बदल कर खेती करने की जरूरत है। इस बारे में किसानों को जागरूक किया जाना चाहिए। कई क्षेत्रों में किसान जमीन की उर्वरकता बढ़ाने के लिए अपने-अपने स्तर पर पारंपरिक उपायों के माध्यम से जमीन की उर्वरता बढ़ाने में लगे हुए हैं। ऐसी पारंपरिक पद्धतियों व उपायों को वैज्ञानिक पा्रमाणिकता दिए जाने की आवश्यकता है।
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