अस्तित्व की पहचान को लेकर जूझ रहे श्रीलंकाई तमिल

सुष्मिता दास, आईएनएन, नईदिल्ली, @infodeaofficial

श्रीलंका में लिट्टे के खात्मे के दौरान कई श्रीलंकाई तमिलों को अपनी जान बचाने के लिए दूसरे देशों में शरण लेनी पड़ी। उनमें से अधिकांश तमिलनाडु में अपने अस्तित्व को दुबारा शुरू करने के लिए आए लेकिन उन्हें आज भी अपने अस्तित्व को लेकर काफी जद्दोजहद करनी पड़ रही है। लेकिन पिछले दो दशकों से तमिलनाडु में अपना जीवन बीता रहे लोगों के पास सबसे बड़ी समस्या यह हो गई है कि यहां पले-बढ़े और पढ़े-लिखे उनके बच्चों का भविष्य श्रीलंका में सहज होगा या नहीं? तमिलनाडु के कई राजनैतिक पार्टियों और नेताओं ने खुले तौर पर इन श्रीलंकाई तमिलों का सर्मथन किया और हर स भव मदद का भरोसा भी दिलाया लेकिन नतीजा ढ़ाक के तीन पात। आज भी कई श्रीलंकाई शरणार्थी शिविरों में रहने को विवश हैं। इनमें से कई ऐसे हैं जिनकी श्रीलंका में अच्छी खासी जमीन जायदाद हैं। कईयों ने जिंदगी इन शरणार्थी शिविरों में रहने की बजाय खुद और दूसरों की मदद लिए स्वयं को मजबूत करने का बीड़ा उठाया। यहां बढ़े हुए श्रीलंकाई तमिलों के बच्चों की इच्छा है कि उन्हें भारत की नागरिकता मिल जाए और वह यहां के पहचान से आगे अपनी पहचान बनाए। श्रीलंका और भारत में अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे इन लोगों को यह पता नहीं कि उन्हें उनका अधिकार कब मिलेगा लेकिन इनकी आस अब तक टूटी नहीं है। इन्हें भरोसा है कि इनके पुराने और नए मुद्दे का हर स भव हल जरूर और जल्द निकलेगा।

ऐसे ही लोगों में से एक हैं के. रेतिनराज सिंगम आर्गेनाइजेशन फॉर इलम रिफ्यूजी रिहेबिलिटेशन (ऑफरर) नामक संस्था के स्पीरुलिना कल्टिवेशन के प्रोग्राम डायरेक्टर हैं। यह संस्था लोगों को स्पीरुलिना की खेती और उसके व्यवसाय के बारे में प्रशिक्षण देती है। यह इंटीग्रेटेड फार्मिंग का एक हिस्सा है जो आधुनिक तकनीकी की मदद से कृषि को बढ़ावा देता है। ऑफरर संस्था श्रीलंकाई तमिलों के श्रीलंका में विस्थापन तथा वहां उनके अधिकारों के लिए काम कर रही है। रेतिनराज इस संस्था के डायरेक्टर ऑफ लाइवलीहुड प्रोग्राम भी हैं। रेतिनराज को वर्ष 1990 में श्रीलंका में तमिलों पर हो रहे अत्याचार की वजह से तमिलनाडु में शरण लेनी पड़ी। रेतिनराज का जन्म श्रीलंका के जाफना में हुआ वहां उन्होंने जर्नलिज्म में डिप्लोमा किया और जाफना के उदन न्यूज पेपर के साथ काफी समय तक काम भी किया। श्रीलंका से तमिलनाडु आने के बाद वे ऑफरर संस्था से अपने जैसे कई लोगों की मदद के लिए जुड़े। आज वह कांचीपुरम जिले के नावालुर स्थित सिपकॉट में अपना इंटीग्रेटेड फार्मिंग और स्पीरुलिना कल्टिवेशन का प्रशिक्षण देते हैं। इन्होंने बाद उन्होंने ंतमिलनाडु कृषि विश्वविद्यालय से बैचलर इन फार्म टेक्नोलॉजी किया। इस इंटीग्रेटेड फार्मिंग व प्रशिक्षण प्रोग्राम से हुई आमदनी से वह फिलहाल श्रीलंका से आए तमिलों की मदद कर रहे हैं। नावालुर स्थित इनकी संस्था में 15 श्रीलंकाई पुरुष और महिला रह रहे हैं। यहां यह 12 एकड़ की जमीन में इंटीग्रेटेड फार्मिंग और स्पीरुलिना कल्टिवेशन का प्रशिक्षण देते हैं। रतिनराज ने स्पीरुलिना कल्टिवेशन का प्रशिक्षण वर्ष 2002 में शुरू किया और अब तक इन्होंने लगभग ढ़ाई हजार लोगों को इसका प्रशिक्षण दिया है जिसमें देश-विदेश के लोग शामिल हैं। इनमें से 100 से अधिक लोगों ने तो अपना स्पीरुलिना कल्टिवेशन एंड प्रोडक्शन एक्टिविटि भी शुरू कर दिया है। इसे अलावा ये राज्य के कई विश्वविद्यालय व संस्थानों में इसके बारे में लोगों को जागरूक करते व प्रशिक्षण देते हैं।

रतिनराज ने विशेष बातचीत के दौरान बताया कि वह तमिलनाडु में पिछले दो दशक से रह रहे हैं पर अबतक उन्हें अपनी चिंता थी अब उन्हें अपनी चिंता उतनी नहीं जितनी अपने बेटे व यहां रह रहे श्रीलंकाई तमिलों के बारे में हैं। उन्होंने बताया कि उन्होंने अपनी आधी जिंदगी बस इसी प्रयास में गुजार दी कि श्रीलंका से विस्थापित तमिलों को शांति बहाल होने के बाद उनका अधिकार मिले। लेकिन पिछले दो दशक में काफी कुछ बदल चुका है। इन दो दशकों में उनके बेटे ने तमिलनाडु से अपनी शिक्षा-दीक्षा पूरी की और यहां अपने करियर को बनाने की इच्छा रखता है। वहीं उनकी अभी भी इच्छा यह है कि उन्हें श्रीलंका में उनका पैतृक स्थान दुबारा मिले। सबसे हैरानी की बात यह है कि तमिलनाडु की कई राजनैतिक पार्टी और राजनेताओं ने खुलकर लिट्टे और श्रीलंकाई तमिलों का सर्मथन किया लेकिन आज इतने साल बीत जाने के बाद भी उनमें से अधिकांश लोग शरणार्थी शिविरों में अपना जीवन काटने को विवश हैं या फिर अपने अस्तित्व के लिए जूझ रहे हैं। आज काफी सालों के बाद श्रीलंका और भारत के बीच संबंध बेहतर हुए हैं। काफी सालों के बाद कोई भारतीय प्रधानमंत्री श्रीलंका गया और जाफना का दौरा किया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस प्रयास के बाद इन लोगों की उम्मीद एक बार फिर बढ़ी है कि अब उन्हें उनका अधिकार जरूर मिलेगा। लेकिन सबसे गौर करने की बात रतिनराज के बेटे के भविष्य और उसके जैसे कई युवाओं का है। जिन्होंने यहां अपनी पूरी पढ़ाई लिखाई की और आगे भी यहीं कुछ करना चाहते हैं। लेकिन इनके लिए सबसे बड़ी समस्या भी अपनी पहचान को लेकर है।रतिनराज श्रीलंका में अपनी पहचान को वापस पाने के लिए लड़ रहे हैं तो अब उन्हें यह चिंता है कि उनके बेटे को उसका अधिकार कौन दिलाएगा। श्रीलंकाई तमिलों की मदद और हर प्रकार के समर्थन का दम्भ भरने वाले नेताओं को शायद उनकी इस उभरती समस्या के बारे में जानकारी तक नहीं है। अब जिसकी जानकारी है वे अभी भी काफी सालों से शरणार्थी शिविरों में रहने को विवश है तो इसके बारे में जानकारी होने से भी उन्हें कोई खास मदद की उम्मीद नहीं है। रतिनराज का कहना है कि अगर उन्हें श्रीलंका में उनका अधिकार मिल गया तो वह वहां खुशी से जाकर रह लेंगे पर उनके बेटे के लिए वहां रह पाना शायद सहज न हो। रतिनराज के बेटे जिन्होंने अपनी पढ़ाई और करियर की शुरूआत तमिलनाडु में की वह अब वापस श्रीलंका जाने में हिचक रहें है। उनके लिए तमिलनाडु में रहना श्रीलंका में जीवन की नई शुरूआत करने से ज्यादा सहज है। ऐसे यह गम्भीर सवाल उठता है कि क्या रतिनराज के बेटे जैसे कई अन्य युवाओं को अपना कहने वाला राज्य और देश उन्हें अपनाएगा और क्या उन्हें अपनी पहचान देगा।

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