बंद रास्ते खोलने व नए रास्ते खोजने की हिम्मत देता है संघर्ष: कवि सतीश कुमार ‘नैतिक’

प्रस्तुतिः भरत संगीत देव, आईएनएन/नई दिल्ली, @infodeaofficial 

छायावादी युग के मशहूर कवि सुमित्रानंदन पंत ने 100 साल पहले अपनी कालजयी पंक्तियों में कवि और कविता को परिभाषित करते हुए लिखा था ‘वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान/ निकलकर आंखों से चुपचाप, बही होगी कविता अन्जान’।

आज भी ये पंक्तियां प्रासंगिक होने के साथ चेन्नई के चर्चित युवा कवि सतीश कुमार श्रीवास्तव ‘नैतिक’ पर सटीक बैठती हैं।

कविता को परिभाषित करते हुए वे कहते हैं जब मन में उठती है लहरें और बाढ़ आंख में आती है, तब कोई कवि जन्म लेता है और कोई कविता बन जाती है।

उनका मानना है दुख के दौर में दिल की गहराइयों से निकलने वाला साहित्य अधिक जीवंत एवं असरदायक होता है। अपनी एक गजल में उन्होंने इशारा करते हुए लिखा है कि-जितनी गहरी चोट हो उतनी धार निकलती है/घिस-पिट-तप कर लोहे से तलवार निकलती है।

जितनी पीड़ा होगी उतना पक कर निकलेगी/ दुख में कविता अच्छी और दमदार निकलती है। लगभग दो साल से निलंबित चल रहे सतीश अपनी पीड़ा प्रकट करते हुए कहते हैं कि आज के दौर में जहां नेताओं को अधिकारियों की जगह-जगह चाटुकारों की दरकार है वहीं  अधिकारियों को भी कमर्चारी की जगह हां में हां मिलाने वाले नौकरों की जरूरत है। मक्खन के इस दौर में जहां नेता जुमले उछालने में और अधिकारी अधिकार दिखाने में  लगे हुए  हैं।

अपने निलंबन के बारे में उन्होंने कहा कि वे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की ओर से 1918 में स्थापित एक ऐसे राष्ट्रीय महत्वपूर्ण संस्था में काम करते हैं जहां का वजीर कब किसे सूली पर चढ़ा दे कहा नहीं जा सकता? उसकी ताकत का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पिछले 2  दशकों से वह संस्था के महत्वपूर्ण पदों पर है।

1964 में भारतीय संसद की ओर से राष्ट्रीय महत्व की संस्था घोषित किए जाने के बावजूद यहां के शैक्षणिक कर्मचारियों एवं गैर-शैक्षणिक कर्मचारियों को अलग-अलग दर से मंहगाई-आवासीय भत्ता दिया जाता है।

उन्होंने बताया कि निलंबन के पहले एक सहायक प्रोफेसर के तौर पर उन्हें मात्र लगभग 18 हजार वेतन प्राप्त होता था। जब नियमों का हवाला देते हुए उन्होंने उच्चाधिकारियों को पत्र लिखा तो उनपर कई आरोप लगाकर निलंबित कर दिया गया।

उन्होंने बताया कि निलंबन की अधिकतम अवधि बीत जाने के बाद भी मानसिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से परेशान करने के लिए उन्हें अभी तक निलंबित रखा गया है।

निलंबन वापस लेने में विलंब का कारण पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि समय के साथ जनतंत्र का भी अर्थ अब बदल चुका है। आधुनिक जनतंत्र का मतलब तमाम तंत्रों का प्रयोग कर जनता को दबाना और उनके साथ वही किया जा रहा है। निलंबन के बाद से हर महीने उन्हें मात्र 8 से 7.5 हजार के बीच जीवन-यापन भत्ता दिया जाता है, जबकि यहां कमरे का किराया ही 9500/- प्रतिमाह है।

ऐसे में यदि पत्नी का सहारा नहीं होता, तो रोटी-दाल क्या नमक के भी लाले पड़ जाते। जीवन के संघर्ष के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि अभी तक संघर्ष और उनका चोली-दामन का साथ रहा है। हालांकि सफलता के लिए संघर्ष जरूरी है। विपरीत परिस्थितियों से लडऩे के बाद अपने लक्ष्य तक पहुंचने का मजा ही और होता है।

उन्होंने कहा कि हालात कैसे भी हों, पर कमजोर नहीं पडऩा चाहिए। सफलता उस व्यक्ति की चौखट तक खुद चलकर आती है जो मुश्किल हालातों का भी डटकर मुकाबला करते हैं।  उन्होंने बताया कि विफलता के दौर में आपको देखकर मुँह घुमाने वाले भी सफल हो जाने के बाद अपने आप को आपका भाग्यविधाता बताने से नहीं चूकते लेकिन हकीकत यह है कि दुनिया में न तो कोई किसी का ब्रह्मा है और न  भाग्यविधाता। आपके अपने कर्म ही आपके भगवान और आपके देवता भी हैं।

संघर्ष के इस दौर में दुख और पीड़ा के गर्भ से निकली अपनी पहली चर्चित पुस्तक चलो अब आदमी बना जाए  के बारे में उन्होंने कहा कि विज्ञान, तकनीक एवं संचार क्रांति के इस युग में आज भले ही लोग चांद पर पहुंचने का दावा करते हों लेकिन सच्चाई यह है कि आसमान पर उडऩे के चक्कर में हम जमीन छोड़ते जा रहे हैं।

विज्ञान और विज्ञापन की चकाचौंध ने आदमी को जितनी तेजी से आदमीयत से दूर किया है वह किसी से भी छिपा नहीं है। रिश्ते रीस रहे हैं, संबंध निभाए कम और ढोए अधिक जा रहे हैं। यदि अभी भी नहीं चेते, तो वह दिन दूर नहीं जब सब रहते हुए भी हमारे पास कुछ नहीं  रह जाएगा।

मशीनी गति से संवेदनहीन होता जा रहा आज का समाज पूरे आदमजात के लिए खतरे की घंटी है। उन्होंने बताया कि उनका यह संग्रह मानव से मशीन तथा जन से जानवर बनते जा रहे इस आदम जात से इंसानियत की ओर लौटने का विनम्र अनुरोध करता है।

जब प्राण निकल जाने के बाद प्राणी मिट्टी से अधिक कुछ नहीं रहता तो मानवताविहीन मनुष्य को मानव कैसे कहा जा सकता है? वे साहित्य को ईश्वर प्रदत्त आत्मा की आवाज मानते हुए कहते हैं कि यह आपकी निजी पूंजी नहीं बल्कि ईश्वरीय कृपा है इसलिए इसका प्रयोग समाज के कल्याण के लिए होना चाहिए।

उन्होंने मौजूदा साहित्य, साहित्यकार एवं साहित्यिक संस्थाओं को कटघरे में खड़ा करते हुए कहा कि जहां एक तरफ बाजारवाद मौलिकता का गला घोटने में लगा हुआ है वहीं दूसरी ओर लोग सस्ती लोकप्रियता के पीछे पागल हुए जा रहे हैं। सम्मान के नाम पर दुकान चलाने वाली संस्थाओं की देश में कोई कमी नहीं  है।

सम्मान के बदले सम्मान का धंधा इन दिनों जोरों पर है। आलम यह है कि सम्मान आजकल खरीदे-बेचे भी जा रहे हैं और इनका पारस्परिक विनिमय भी खूब हो रहा है। कुछ मठाधीश सेटिंग तकनीक से सम्मान हथियाने में लगे हुए हैं तो कुछ अपनी रोटी सेंकने और दाल गलाने के जुगाड़ में हैं।

नाम नहीं बताने की शर्त पर उन्होंने चेन्नई की एक पुरानी एवं प्रतिष्ठित संस्था की भूमिका पर सवाल उठाते हुए कहा कि छात्र जीवन में मैं जितनी बार भी इस संस्था के मंच से कविता पाठ किया मुझे सर्वश्रेष्ठ युवा/छात्र कवि का सम्मान मिला लेकिन नौकरी में आने के बाद से इसने मुझसे ऐसी दूरी बनाई जैसे लोग अपने दुश्मनों से बनाते हैं।

उन्होंने कहा कि हालांकि इसमें संस्था का कोई दोष नहीं है। दरअसल यह संस्था में बैठे कुछ सुरक्षा से ग्रसित मठाधीशों की करामात है। साहित्य का सबसे अधिक नुकसान साहित्यिकराजनीति ने किया है।

साहित्य के गंगाजल में राजनीतिक गंदगी देखकर काफी दुख होता है। अपनी पहली ही पुस्तक को प्रकाशक की ओर से बेस्ट सेलर सम्मान दिए जाने पर उन्होंने नवजागरण प्रकाशन को धन्यवाद देते हुए कहा कि उन्होंने इसकी कल्पना कभी सपने में भी नहीं की थी। इस गजल संग्रह में जो भी लिखा है वह दिल की गहराइयों से लिखा गया है। लिखते समय कई बार आंखे भर आईं तो कई बार गजल को बीच में ही अधूरा छोडऩा पड़ा।

 

उन्होंने बताया कि  किसी भी प्रकार की रचना करना आसान नहीं होता फिर चाहे वह साहित्य ही क्यों ना हो। कुछ लिखने के पहले अपने आपको कसौटी पर कसना बहुत जरूरी है। आप उपदेश तभी दे सकते हैं जब आप खुद उसका पालन करते हों। रचनाकार को यथा संभव दोहरे व्यक्तित्व से बचना चाहिए।

रचना आत्मा की आवाज का प्रतिबिंब है और भाव रचना की आत्मा। इसलिए रचना के दौरान उन्होंने व्याकरण एवं नियमों एवं की अपेक्षा भाव पर अधिक ध्यान दिया है।

उन्होंन कहा कि सुंदर से सुंदर शरीर की सुंदरता तभी तक कायम है जब तक उसमें प्राण है आत्मा के निकल जाने के बाद उसकी कीमत मिट्टी के बराबर भी नहीं रह जाती। वास्तव में किसी रचना की आत्मा उसका भाव ही है मात्र शरीर की सुंदरता के लिए आत्मा को मारना रचना की हत्या करने जैसा है।

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