मुंशी प्रेमचंद्र नाट्य महोत्सव में रंगकर्मियों का जलबा
सुरेन्द्र मेहता, आईएनएन/बिहार, @Infodeaofficial
उत्तर क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र,पटियाला द्वारा आयोजित 8 दिवसीय “मुंशी प्रेमचंद नाट्य महोत्सव” के तीसरे दिन सूत्रधार संस्थान आज़मगढ़, उत्तर प्रदेश द्वारा प्रेमचंद रचित “बूढ़ी काकी” कहानी का मंचन बिस्मिलाह खां राष्ट्रीय सम्मान से सम्मानित युवा रंगकर्मी अभिषेक पंडित के निर्देशन में किया गया।
“बूढ़ी काकी” नाटक में कहानीकार मुंशी प्रेमचंद ने बूढ़ी काकी के माध्यम से समाज में खो रहे बुजुर्गों के सम्मान और परिवार के द्वारा समाज के अन्य वर्गों के द्वारा हो रहे शोषण को दिखाने का प्रयास किया है। अभी के भौतिक वादी युग में हम देख रहे हैं कि माता-पिता बहुत कठिन मेहनत से बच्चों को पढ़ाते-लिखाते हैं, और जीने का रास्ता बताते हैं,वही बच्चे बड़े होकर माँ – बाप को वृर्द्धाश्रम पहुँचा देते हैं।
कहानी में मुख्य पात्र बूढ़ी काकी हैं,और पूरी कहानी उनके इर्द – गृद घूमती है,बूढ़ी काकी को बच्चे चिढ़ाते हैं,जो बूढ़ी काकी अपने पति के बिसर जाने के बाद अपनी सारी सम्पति अपने भतीजे को दे देती है ताकि वो उनका ध्यान रख सके ,लेकिन सम्पति पाते ही उनका भतीजा पंडित बुद्धिराम का स्वभाव बदल जाता है,यहाँ तक कि उनको भोजन के लिए भी तरसना पड़ता है, रूपा जो कि बुद्धिराम की पत्नी है,छोटी-छोटी बातों पर ताना मारते रहती है,उन्हें बुरा भला कहती है।
इसी तरह उनके बच्चे भी उनके साथ वही व्यवहार करते हैं,एक दिन बुद्धिराम के बड़े बेटे मुखराम का तिलक होता है और भोज की तैयारी चल रही होती है,सारे अतिथि और घर के लोग भोजन करते हैं,लेकिन बूढ़ी काकी को कोई पूछता तक नहीं है। काकी इस आस में बैठे रहती है कि कोई उन्हें बुलाने आयेंगे और कहेंगे चलो काकी भोजन कर लो ,लेकिन कोई नही आता है,काकी भूख से तड़प रही होती है, तो वह चुपचाप खिसकते हुए वहाँ पहुँच जाती है,तो रूपा यह देखकर झल्ला जाती है और बूढ़ी काकी को धक्का मारकर भगा देती है, यह बात रूपा की छोटी बेटी लाडली को अच्छा नहीं लगता है,
वह सबके सोने के बाद बूढ़ी काकी को अपना बचा हुआ भोजन देती है काकी खाती है तो मन नहीं भरता है ,तो वह लाडली से कहती है, मुझे वहाँ ले चलो जहाँ मेहमानों ने भोजन किया है,लाडली काकी के अभिप्राय को समझ नहीं पाती हैं और उन्हें वहाँ ले जाती है काकी जूठे पत्तलों को देखते ही उस पर टूट पड़ती है,तभी लाडली को ढूंढते हुए रूपा आती है और यह दृश्य देखकर आत्मग्लानि से भर जाती है,तब उसे एहसास होता है,जिसका सब कुछ दिया हुआ , उसी की मैंने यह दुर्दशा कर दी है,तब वो ख़ुद थाल में सजा कर काकी के लिए भोजन लाती। नाटक को युवा निर्देशक अभिषेक पंडित ने सादगी के साथ अपने रचनात्मकता के बल पर कहानी को जीवंत कर दिया।
नाटक में संगीत का प्रयोग धागे की तरह किया गया है ,जो कहानी को आगे बढ़ाते है।संगीत परिकल्पना मध्य प्रदेश नाट्य विद्यालय से उतीर्ण शशिकान्त कुमार का था।
मंच पर ममता पंडित,डी. डी. संजय,रितेश रंजन,अंगद कश्यप,संदीप,अलका सिंह ने अपने अभिनय से दर्शकों पर अमिट छाप छोड़ा।
मंच परे संगीत में
अजय,पुनीत ,अनादि अभिषेक साथ दे रहे थे। प्रकाश परिकल्पना रंजीत कुमार का था। दर्शकों ने निर्देशक अभिषेक पंडित के, सादगी में पूरी कहानी को प्रस्तुत करने की रचनात्मकता को और पूरे नाटक को काफ़ी सराहा।
मौके पर उत्तर क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र (NZCC), पटियाला के निदेशक प्रोफेसर सौभाग्य वर्धन आदि मौजूद थे।
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बहुत-बहुत आभार सर।