संपत्ति का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार: सुप्रीम कोर्ट
आईआईएन/नई दिल्ली, @Infodeaofficial
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि संपत्ति का अधिकार एक संवैधानिक अधिकार है। किसी को भी क़ानून के मुताबिक उचित मुआवजा दिए बिना, उसकी संपत्ति से वंचित नहीं किया जा सकता। सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दो दशक पहले बेंगलुरू मैसूर इंफ्रास्ट्रक्चर कॉरिडोर प्रोजेक्ट के लिए अपने ज़मीन देने वाले लोगों की याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया।
कोर्ट ने कहा कि इस केस में ज़मीन मालिक न केवल मुआवजे से वंचित रहे बल्कि उन्हें करीब 22 साल तक अपने वाजिब हक़ के लिए अदालतों के चक्कर काटने पड़े। इसलिए मुआवजे की रकम तब से तय नहीं की जा सकती , जब से अधिग्रहण की प्रकिया शुरू हुई थी।
जस्टिस बी आर गवई की अध्यक्षता वाली बेंच ने अपने फैसले में संपत्ति के अधिकार को अहमियत देते हुए कि संपत्ति का अधिकार पहले मौलिक अधिकार था। 1978 में संविधान के 42 वें संशोधन के बाद ये भले ही मौलिक अधिकार नहीं रहा लेकिन आर्टिकल 300 के तहत ये अभी भी संवैधानिक अधिकार है। भारत जैसे देश में जहां लोकतांत्रिक राज्य की अवधारणा है, वहां संपत्ति का अधिकार अपने आप में एक ऐसा मानवीय अधिकार है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मौजूदा केस में कर्नाटक इंडस्ट्रियल एरिया डेवलपमेंट बोर्ड ने जनवरी 2003 में प्रोजेक्ट के लिए ज़मीन हासिल करने के लिए नोटिफिकेशन जारी किया। 2005 में इस ज़मीन का अधिग्रहण भी कर लिया गया। लेकिन इसके बावजूद ज़मीन के मालिकों को मुआवजा हासिल करने के लिए 22 सालों तक अदालत के चक्कर लगाने पड़े। मुद्रास्फीति की वजह से वक़्त गुजरने के साथ पैसे की कीमत घटती ही है।
मुआवजे की जिस रकम से साल 2003 में जो खरीदा जा सकता है, वो साल 2025 में संभव नहीं है। इसलिए ज़रूरी है कि मुआवजे की रकम के निर्धारण और इसके बंटवारे में देरी न हो। कोर्ट ने कहा कि इस केस में मुआवजे की रकम साल 2019 में ज़मीन के बाजार रेट के हिसाब से तय होनी चाहिए ना कि साल 2003 में जब ज़मीन हासिल करने के लिए कर्नाटक इंडस्ट्रियल` एरिया डेवलपमेंट बोर्ड ने नोटिफिकेशन जारी किया था।
कोर्ट ने कहा कि इस केस में भूमि अधिग्रहण अधिकारी का ज़मीन के मुआवजे की रकम निर्धारित करने का आदेश 22 अप्रैल 2019 का है। इसलिए उसी वक़्त की बाजार क़ीमत के हिसाब से ही मुआवजा तय किया जाना चाहिए।