आर. रंजन, आईएनएन, चेन्नई;
साठ के दशक में भारत में यूरिया का इस्तेमाल करने की शुरुआत की गई जिससे खेतों के उत्पादन में काफी बढ़ोत्तरी तो दिखी पर यह एक बड़ी व स्थाई समस्या की शुरुआत भर थी। किसानों ने भारत में खाद का इस्तेमाल खेत की उर्वरकता बढ़ाने के लिए शुरू किया पर उर्वरक ने खेतों की मिट्टी की गुणवत्ता ही खराब करनी शुरू कर दी। तमिलनाडु के 72 साल के किसान नेता अय्याकानू का कहना है कि वर्ष 1965 में एक एकड़ जमीन में उन्हें 5-10 किलोग्राम उर्वरक का इस्तेमाल करना पड़ता था। शुरुआती कुछ सालों में उर्वरक के उपयोग से खेत की पैदावार में काफी वृद्धि हुई। लेकिन ज्यों-ज्यों समय बीतता गया पैदावार घटती चली गई और उर्वरक का उपयोग बढ़ता गया। उनका कहना है कि उर्वरक ने न केवल मिट्टी की गुणवत्ता का ह्रास किया है बल्कि पर्यावरण को भी प्रदूषित किया है।
मदुरै के किसान अकिलन का कहना है कि उनके पिता ने उन्हें बताया था कि 65 के दौर में देश में पहली-पहली बार उर्वरक को खेती में व्यवहार में लाया गया। उस वक्त किसानों की पैदावार काफी अच्छी हुई। जिसने किसानों को उर्वरक का रोगी बना दिया। मेरे पिता भी पहले कुछ सालों में जमकर उर्वरक का इस्तेमाल करते थे। लेकिन कुछ सालों के बाद स्थिति बदली तो उन्होंने फैसला किया कि वह उर्वरक का इस्तेमाल अपने खेतों में नहीं करेंगे। 1990 के दशक में एक एकड़ में 50-75 किलोग्राम उर्वरक को व्यवहार में लाया जाता था। जो कि 60 के दशक में केवल 5-10 किलोग्राम भर ही था। जैसे-जैसे दिन बीतता गया यूरिया की खपत बढ़ती गई। खेतों में उत्पादन भी अपेक्षाकृत कम होता गया। जिसके कारण मेरे पिता ही नहीं बल्कि कई किसानों से उर्वरक का उपयोग छोडऩे का फैसला तो किया पर बहुत कम ही इस पर टिक पाए। अकिलन का कहना है कि मौजूदा दौर में एक एकड़ जमीन में 150-200 किलोग्राम उर्वरक को व्यवहार में लाया जाता है। वहीं पैदावार में उर्वरक के प्रयोग की अपेक्षा में उत्पादन में काफी कमी आई है।
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