समकुलपति आरएफ नीरलकट्टी के निर्देशों पर होता है हर काम
1918 में महात्मा गांधी ने की थी स्थापना
भारतीय संसंद ने 1964 में दिया था राष्ट्रीय महत्व का दर्जा
भरत संगीत देव, आईएनएन/नई दिल्ली, @infodeaofficial
इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत एक बहुभाषी देश है और इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि आज हिंदी के नाम को देश ही नहीं, दुनियाभर की प्रमुख भाषाओं की सूची में शामिल किया जा चुका है। आलम यह है कि मौजूदा दौर में हिंदुस्तान के सबसे बड़े भू-भाग में बोली जाने वाली इस भाषा का लोहा पूरी दुनिया मान रही है। अगर यह कहा जाए कि बाजारवाद के इस दौर में हिंदी शिक्षण देश-दुनिया की आवश्यकता बन चुकी है, तो कोई तिश्योक्ति नहीं होगी।
इसके इसी चमत्कार का नतीजा है कि आज किसी न किसी रूप में हिंदी को अमेरिका सहित दुनिया भर के अनेक देशों मे पढ़ाया और सिखाया जा रहा है। हालांकि आजादी के पहले यह स्थिति नहीं थी। तब दुनिया तो दूर,देश के भी कई राज्यों में हिंदी का नामोनिशान तक नहीं था। विशेषकर दक्षिण भारत की स्थिति कुछ ज्यादा खराब थी। अंग्रेजी हुकूमत के दौरान यह महसूस किया गया कि देश को आजाद कराने के लिए एक ऐसी भाषा बहुत जरूरी है, जो पूरे देश को एक सूत्र में बांध सके। इसके लिए हिंदी को ही सबसे अधिक उपयुक्त समझा गया और देश भर में इस भाषा के प्रचार प्रसार के लिए हिंदी साहित्य सम्मेल, प्रयाग आदि कई संस्थान खोले गए।
इसी के तहत दक्षिण भारत में हिंदी के प्रचार के लिए महात्मा गांधी ने 1918 में तत्कालीन मद्रास एवं मौजूदा चेन्नई में दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास की स्थापना की।
धीरे-धीरे इसकी शाखाएं तमिलनाडु के अलावा दक्षिण भारत के अन्य प्रांतों केरल, कर्नाटक एवं आंध्र प्रदेश में भी खुल गईं। इसके कार्य को देखते हुए भारतीय संसद ने 1964 में इसे राष्ट्रीय महत्व का दर्जा प्रदान करते हुए राष्ट्रीय महत्व की संस्था भी घोषित कर दिया।
नाम के अनुरूप इस संस्था ने पूरे दक्षिण भारत हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए जो काम किया वह किसी मील के पत्थर से कम नहीं है, लेकिन समय बीतने के साथ धीरे-धीरे यहां पर भी भ्रष्टाचार का दीमक घर बनाने लगा।
पिछले कुछ सालों में यहां अनियमितता की बाढ़ सी आ गई है। हिंदी प्रचार-प्रसार के लिए स्थापित इस संस्था के बैनर तले पॉलिटेक्निक, मेडिकल, लॉ एवं अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों का संचालन भी किया जा रहा है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग से मान्यता नहीं होने के बावजूद शिक्षा शास्त्र के एमफिल एवं पीएचडी जैसे शोधपरक पाठ्यक्रमों मे न केवल दाखिला दिया जा रहा, बल्कि धड़ल्ले से उपाधि भी प्रदान की जा रही है। राष्ट्रीय महत्व के इस संस्थान की मौजूदा हालत को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि आज यह अपने उद्देश्य से भटक गई है।
कई मामलों में तो यह भारत के संविधान की भी परवाह नहीं करती। यहां एक ही परिसर में काम करने वाले शैक्षणिक-गैर शैक्षणिक कर्माचारियों को अलग-अलग दर से महंगाई भत्ता दिया जा रहा है। हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए स्थापित इस संस्था में अनियमितताओं ने जितनी तेजी से जड़ जमाना शुरू किया उसे देखने से ऐसा प्रतीत होता है जैसे अब यह संस्था दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार-प्रसार का केंद्र कम और भ्रष्टाचार का केंद्र अधिक हो गई है।
यहां होने वाले गोरखधंधे का केंद्रबिंदु मुख्यालय न होकर कर्नाटक प्रांत का शाखा कार्यालय धारवाड़ है, जहां 4 प्रांतों के कार्याध्यक्ष एवं समकुलपति आरएफ नीरलकट्टी एवं प्रांतीय कार्यालय धारवाड़ के कार्याध्यक्ष शिवयोगी आदि बड़े पदाधिकारी बैठते हैं और इन दोनों पदाधिकारियों के बीच पिता-पुत्र का संबंध भी है। यहां की अनियमितता के बारे में पूछे जाने पर कुलसचिव, परीक्षा नियंत्रक, धारवाड़ शाखा सचिव एवं कर्नाटक प्रांत के कार्याध्यक्ष शिवयोगी में से किसी ने भी संतोषप्रद जवाब नहीं दिया।
कुछ अधिकारियों ने तो यहां तक कहा कि वे लोग तो बस वहीं करते हैं, जो समकुलपति महोदय का निर्देश होता है। संस्था के उच्च शिक्षा और शोध संस्थान के कुलसचिव प्रोफेसर प्रदीप कुमार शर्मा ने बताया कि शिक्षाशास्त्र में एमफिल एवं पीएचडी जैसे शोधपरक कार्यक्रमों का संचालन मुख्यालय मद्रास से नहीं बल्कि धारवाड़ केंद्र से किया जाता है।
इसके अलावा लॉ, पॉलिटेक्निक एवं मेडिकल आदि अवैध पाठ्यक्रमों का संचालन प्रादेशिक केंद्र धारवाड़ से किया जाता है। यह पूछे जाने पर कि किस नियम के आधार पर एक ही संस्थान में अलग-अलग दर से मंहगाई भत्ता और आवासीय भत्ता दिया जाता है? उन्होंने कहा कि इसका निर्णय शासी परिषद करता है। यह कहने पर कि यह तो सीधे-सीधे भारतीय संविधान का उल्लंघन है उन्होंने कहा कि वे तो केवल आम कर्मचारी हैं और अकेले क्या कर सकते हैं। उन्हें तो बस समकुलपति महोदय के आदेशों का पालन भर करना पड़ता है।
यहां की अनियमितता के बारे में पूछे जाने पर परीक्षा नियंत्रक डॉ. सुभाष राणे ने पहले तो संवाददाता के प्रश्नों का गोल-मोल जवाब दिया, लेकिन बाद में अपने ही बयानों में उलझ जाने पर उन्होंने बताया कि उनके हाथ में कुछ भी नहीं है सब कुछ समकुलपति महोदय के आदेशानुसार होता है। संवाददाता ने जब उनसे पूछा कि क्या आपके यहां के सभी पाठ्यक्रम यूजीसी से मान्यता प्राप्त हैं तब उन्होंने हां में जवाब दिया। शिक्षाशास्त्र एवं बीकॉम पाठ्यक्रम को कहां से मान्यता प्राप्त है, तो उन्होंने कहा कि उनकी स्वायत्त संस्था है और उन्हें किसी से मान्यता लेने की कोई जरूरत नहीं है।
विद्यार्थियों के भविष्य का हवाला देने के बाद उसने भी अनियमितता का सारा का सारा ठीकरा समकुलपति महोदय के सर फोड़ दिया। परीक्षा नियंत्रक ने स्वयं एक बार हिंदी के सहायक प्रोफेसर को बीकॉम का प्रश्नपत्र बनाने के लिए दिया था। इस बारे में पूछे जाने पर पहले तो उसने इसे सिरे से नकार दिया लेकिन बाद में प्रश्नपत्र की प्रति का हवाला देने पर उसने अपनी गलती को स्वीकार कर लिया।
संस्थान के कर्नाटक के प्रांतीय कार्यालय धारवाड़ के सचिव विजयन ने बताया कि धारवाड़ केंद्र के अंतर्गत मेडिकल, लॉ, पॉलिटेक्निक एवं अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय चलाए जाते हैं, लेकिन दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास से संबंधित नहीं हैं। यह पूछे जाने पर कि फिर इसके बैनर और लोगो तले कैसे इन पाठ्यक्रमों का संचालन किया जाता है उन्होंने संतोषजनक जवाब नहीं दिया।
अंत में उन्होंने स्वीकार किया कि धारवाड़ केंद्र पर बहुत कुछ ऐसा भी संचालित होता है, जो नियमानुसार सही नहीं है, लेकिन यह सबकुछ समकुलपति के आदेश एवं निर्देशानुसार चलता है। उन्होंने कहा कि उन्हें यूजीसी के नियमों की अधिक जानकारी नहीं है, लेकिन वे कोई भी काम प्रो. वीसी आरएफ नीरलकट्टी के आदेशानुसार ही करते हैं।
मामले की सच्चाई जानने के लिए दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास के प्रो वीसीआर एफ. निरलकट्टी स े भी कई बार बात करने की कोशिश की गई, लेकिन सम्पर्क नहीं हो पाया। जब कर्नाटक शाखा के कार्यकारी अध्यक्ष एवं प्रो. वीसी के पुत्र शिवयोगी के माध्यम से निरल कट्टी से बात करने की कोशिश की गई तो वे बहाना बनाकर बात को टालने के प्रयास करते नजर आए। अधिकारियों से बातचीत में यह बात साफ नजर आई कि महात्मा गांधी की ओर से स्थापित इस राष्ट्रीय महत्व की संस्था में कर्मचािरयों के वेतन से लेकर उपाधियों एवं परीक्षाओं तक में गोरखधंधा चल रहा है।
न्याय एवं अपने अधिकारों की आवाज उठाने वाले कर्मचारियों को लंबे समय तक निलंबित कर मानसिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से परेशान किया जाता है। यदि समय रहते इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो वह दिन दूर नहीं जब यहां अनियमितता एवं भ्रष्टाचार के अलावा कुछ भी नहीं बचेगा।
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