आजाद मुल्क में भी अधिकारों से वंचित है देश का किन्नर समाज
सतीश कुमार श्रीवास्तव, आईआईएन/चेन्नई, @Infodeaofficial
जून की अंतिम तारीख को जब तमिलनाडु बार काउंसिल ने सत्यश्री शर्मिला का पंजीकरण कर उन्हें देश की पहली किन्नर अधिवक्ता बनने का गौरव प्रदान किया तो उनकी खुशियों का ठिकाना न रहा। चिलचिलाती धूप में पसीने से तर-बतर शर्मिला को आज भयानक गर्मी में भी सावनी फुहार का एहसास हो रहा था। आखिर हो भी क्यों नहीं, आज वे उस जंग में फतह हासिल कर एक ऐसा इतिहास रच चुकी थीं जिसके लिए उन्हें परिवार, समाज यहां तक की सरकार से भी लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी थी। इस मुकाम पर पहुंचने के बाद उन्हें लगा जैसे उन्हें केवल वकालत का अधिकार ही नहीं उनके जीवन संघर्ष की संजीवनी मिल गई है।
हालांकि यहां तक आने के बावजूद समस्याओं ने उनका दामन नहीं छोड़ा। अपनी पीड़ा प्रकट करते हुए उन्होंने बताया कि मुझे वकील का तमगा तो मिल गया लेकिन परेशानियाँ और अधिक बढ़ गईं। अब मैं पहले की तरह कुछ भी करके जीवन-यापन करने के लिए स्वतंत्र नहीं रह गई।
अपना संघर्ष बयां करते हुए वे कहती हैं कि किन्नर के प्रति न तो परिवार का नजरिया सही है और ना ही सरकार का ऐसे में भला उस समाज से क्या अपेक्षा की जा सकती है जो केवल उगते सूरज को सलामी ठोकने में विश्वास रखता है।
उन्होंने किन्नर समाज की स्थिति बताते हुए कहा कि किन्नर होने का पता चलते ही घर-परिवार वाले किनारा करने लगते हैं, समाज के लोग अछूतों जैसा व्यवहार करते हैं।
इतना ही नहीं हिजड़ा कहकर कोई भी संस्थान नौकरी देने के लिए तैयार नहीं होता। उन्होंने बताया कि इस आजाद मुल्क में भी हम किन्नरों को आज तक अपने अधिकार के लिए घर-परिवार-समाज-सरकार सभी से लड़ाई लड़ना पड़ रहा है। उन्होंने पूरे समाज की पीड़ा प्रकट करते हुए कहा कि अधिकारों से वंचित किए जाने के कारण आज भी हम अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहे हैं। हालत यह है कि पुरुष हमें पुरुष नहीं समझता, महिला हमें महिला नहीं समझती। उन्होंने कहा कि समय तो बदल रहा है लेकिन किन्नरों के प्रति समाज के रवैये में कोई बदलाव नजर नहीं आ रहा है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है जैसे आजादी के बाद भी हम इस तथाकथित सभ्य समाज के बीच में गुलामी की जिंदगी जी रहे हैं।
उन्होंने बताया कि विकास के इस दौर में भी समाज हमें उपेक्षा की नजर से देखता है। वह यह नहीं समझता कि हमारे पास भी दिल है, संवेदना है। हम भी हाड़-मांस के बने इन्सान हैं, हमें भी दर्द होता है। भरे गले से अपने समाज की पीड़ा बताते हुए उन्होंने कहा कि आज भी समाज उन्हें इन्सान नहीं मनोरंजन का सामान समझता है। किन्नरों द्वारा की जा रही गुंडागर्दी एवं अवैध वसूली के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि हर समाज की तरह ही किन्नर समाज में भी अच्छे और बुरे दोनों तरह के लोग हैं। इसलिए कुछ लोगों की गलतियों के कारण पूरे किन्नर समाज को कटघरे में खड़ा करना कहीं से भी उचित नहीं है।
अपने समाज के संबंध में सरकार की भूमिका पर सवालिया निशान खड़ा करते हुए उन्होंने कहा कि 15 अप्रैल 2014 को आए एक फैसले में न्यायालय ने किन्नरों को देश का नागरिक बताते हुए सरकार से उन्हें सामाजिक समानता का अधिकार प्रदान कर पिछड़ा वर्ग के तहत उन्हें हर तरह की सुविधा मुहैया कराने के लिए कहा था। उन्होंने कहा कि यह जानते हुए भी कि इसे लागू करने से किन्नरों कि स्थिति सुधर सकती है, सरकार ने ऐसा करना मुनासिब नहीं समझा। उन्होंने बताया कि सरकार भी उन्हें प्रोत्साहित करने के बजाय हतोत्साहित करने में लगी हुई है।
अपना उद्देश्य बताते हुए भी कहा कि इसमें कोई संदेह नहीं कि इस मुकाम पर पहुंचने के लिए उन्हें काफी संघर्ष करना पड़ा। इसके बावजूद वे अभी भी थकी नहीं हैं। वे अपनी और अपने समाज के हक की जंग आगे भी जारी रखेंगी। उन्होंने बताया कि उनका उद्देश्य जज बनकर किन्नर समाज के प्रति लोगों का दृष्टिकोंण बदलना है।
सत्यश्री शर्मिला का उद्देश्य जानने के बाद बरबस ही दुष्यंत कुमार के गजल की वह पंक्ति या आ जाती है कि “कौन कहता है आसमां में सुराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारों” देश की पहली किन्नर अधिवक्ता सत्यश्री शर्मिला के तबियत से पत्थर उछालने के कारण आसमान में छेद तो चुका है लेकिन इंतजार बदलाव के उस बादल के बरसने का है जो ने केवल सत्यश्री शर्मिला बल्कि पूरे किन्नर समाज को बराबरी का अधिकार दिला सके।