गोवा के पश्चिमी घाट के पठारों में वैज्ञानिकों ने मुरैनग्रास की एक प्रजाति की पहचान की है
INN/New Delhi, @Infodeaofficia
भारत के चार वैश्विक जैव विविधता हॉटस्पॉट में से एक गोवा में पश्चिमी घाट पर वैज्ञानिकों ने भारतीय मुरैनग्रास की एक नई प्रजाति की पहचान की है। इसे पारिस्थितिक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्णमानी जाती है। मसलन चारा आदि। इन प्रजातियों ने जटिल परिस्थितियों, कम पोषक तत्व की उपलब्धता, और हर मानसून में खिलने के लिए अनुकूलित किया है।
वैश्विक स्तर पर 85 प्रजातियां इस्चेमम से जानी जाती हैं, जिनमें से 61 प्रजातियां विशेष रूप से भारत में पाई जाती हैं। पश्चिमी घाट में जीनस की उच्चतम सांद्रता वाली 40 प्रजातियां हैं।
विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग का एक स्वायत्त संस्थान, पुणे स्थित अगरकरअनुसंधान संस्थान (एआरआई), पिछले कुछ दशकों से पश्चिमी घाट की जैव विविधता की खोज कर रहा है।
एआरआई से डॉ. मंदर दातार और डॉ. रितेश कुमार चौधरी के नेतृत्व में एक टीम पौधों के विभिन्न समूहों के बीच संबंधों पर काम कर रही है और प्रजातियों के विविधता को लेकर दस्तावेजीकरण करने के लिए भारतीय मुरैनग्रास (जीनस इस्चेम) के विकासवादी विकास (प्लांट टैक्सोनॉमी और फ़ाइलॉगी) पर काम कर रही है।टीम ने गोवा के पश्चिमी घाट के इस्किमम जंर्थनमीफिरोम प्लैटियस नामक एक विशेष प्रजाति की खोज की, और इस प्रजाति का वर्णन करने वाला एक शोध पत्र हाल ही में फिनलैंड के जर्नल एनलिस बोटनिसीफेनिकी में प्रकाशित हुआ।
गोवा के पश्चिमी घाट में अपनी खोज के दौरान एआरआई की टीम ने प्रजातियों के एक दिलचस्प नमूनों की पहचान की जो चट्टानों पर मिट्टी की पतली परत के ऊपर फैला हुआ मिला। काफी परख और अध्ययन के पाया गया कि यह विशेष प्रजातियों में से एक है। गोवा विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रो. एम. के. जनार्थनम के सम्मान में नई प्रजाति का नाम इस्किमम जंतरमनामी रखा गया है, जिन्हें भारतीय घास वर्गीकरण में उनके योगदान के लिए जाना जाता है
इस नई प्रजाति को पहली बार 2017 के मानसून में संग्रहित किया गया था।इसकी स्थिरता की पुष्टि करने के लिए इसे अगले दो वर्षों तक निगरानी में रखा गया था।प्रजातियों के आकृति विज्ञान और आणविक डेटा का इस्तेमाल प्रजातियों की नवीनता की पुष्टि करने के लिए किया गया था।
गोवा के भगवान महावीर नेशनल पार्क के बाहरी इलाके में इस्किमम जंतरमनामी कम ऊंचाई वाले पठारों पर उगती है। वनस्पति ने चरम जलवायु परिस्थितियों में खुद को बचाए रखने को लेकर खुद को तैयार किया है। इनके बारे में अध्ययन से पता चाल कि इन प्रजातियों ने कठोर परिस्थितियों से बचने और हर मानसून में खिलने के लिए अनुकूलित कर लिया है।